ए) सेरेब्रल पाल्सी का नियंत्रण, बोटुलिनम -ए कटाक्सीन के द्वारा : प्राथमिक जांच
बोटुलिनम का प्रयोग सीपी शिशुओं में स्पास्टिसिटी के इलाज के लिए 1990 से हो रहा है । यह न्यूरो ट्रांस्मीटर एसेटिलकोलन का छोडना सीमित न्यूरोमस्कुलर जंक्शन पर करता है एवं चुनींदा स्तर पर पेशी गतिशीलता 12 से 16 हफ्ते कम कर देता है । इससे पेशी टोन घटता है । गति में ज्वाइंट रेंज बढता है, गेट में सुधार आता है । लंबाई बढती है । अनेक सिस्टम में टिक रिव्यू से पता चलता है बंटुलिनम शक्सिन ए के इंजेक्शन से सीपी शिशुओं में स्पास्टिसिटी घटती है । इस प्राथमिक अध्ययन से अंतः पेशी प्रभावित बोटोक्स इंजेक्शन से सीपी में पेशी असंतुलन का आकलन संभव होगा ।
बी) प्लास्टर तकनीक एवं शल्यक्रिया रिलीज के बाद क्लब फूट
रोगियों में दीर्घकालीन परिणाम का मूल्यांकन और
परिणाम की तुलना :
कंजेनिटल टालिप्स इक्वीनोवारस सीटीईवी या क्लब फूट ऐसी विकलांगता है जो 1000 जन्मजात में एक में प्रभाव डालती है । अधिकांश शिशु की चिकित्सा मेनीपुलेशन और सीरियल कास्टिंगे से होती है। हस्तक्षेप का लक्ष्य है दर्द रहित कार्यक्षम फूट । ज्यादातर व्यवहृत प्रणाली रेसिडुअल फूट डिप्ट्रार्मिटी में कास्टिंग के बाद थी - समेकित क्लब फूट रिलीज, यह तकनीक अनेक जांचकर्ताओं द्वारा व्यवहृत एवं संशोधित हुई है । पोस्टेरोमेडियल रिलीज का व्यवहार सभी रिलीज में होता था, फूट विकलांगता तीन दिशाओं में पूरा सुधार किया जाता । वर्तमान केयर का स्तर पोंसेटींीकास्टिअ तकनीकी व्यवहार है । इस अध्ययन का उद्देश्य है सीटीईवी वाले रोगियों में शल्य सुधार के दूरगामी प्रभावों का अध्ययन है । यह क्लब फूट के अध्ययन की समझ युवास्था में बढाना है । इससे सामान्य फूट कार्य के साथ तुलना है । इसमें गेट के दौरान सेग्मेंटल फूट मोशन की मात्रा निर्धारण एवं रेंज आफ मोशन है । रोगियों के संतुष्टि, स्वआकलन और प्रयोगों के परिणाम पर क्लब फूट पेथालाजी के परिणाम वैविध्य का अध्ययन है ।
सी) लेग-काव-पर्थेस रोग में दीर्घकाल फोलो अप :
लेग काव पर्थेस रोग एलसीपीडी की चिकित्सा में स्केलेटल मेच्योरिटी के समय बिना विभंगता के कांगु्रएट हिप ज्वाइंट निर्माण करना । इसमें सेकेंडरी आस्टियो आर्थराइटिस एवं टोटल हिप रिप्लेसमेंट का खतरा कम करना है । एलसीपीडी रोगियों में इस चिकित्सा का लक्ष्य है - फेमरल हेड का कंटेनमेंट एवं इस में फिजिकल थेरापी, ब्रेलिंग/कास्टिंग, एडक्टर टेनाटामी एवं फिमरल एवं या पेल्विक आस्टियोटोमी शामिल करना है । कब और कैसे चिकित्सा करनी है, यह इस बात पर निर्भर है कि रोग की पूर्व जानकारी संपूर्ण हो । अधिकांश साहित्य में वे अध्ययन हैं जहाँ क्राइटेरिया रोग का वगमकरण है, रोगी के इलाज का वगमकरण है इस विधि के कारण पूर्व जानकारी संबंधी निर्णय लेना कठिन होता है और रोग की स्वाभाविक धारा पता नहीं लगा पाते । अध्ययन का उद्देश्य है - यह मूल्यांकन करें कि रोग की गंभीरता, उम्र कितनी है, यह पुरुष है या स्त्री है, खतरे के बिन्दु का शीर्घक और मामूली परिणाम के कारक क्या हैं ।
डी) प्रेसर अल्सर्स : निवारण एवं चिकित्सा :
एक प्रसर अल्सर ऐसी चमडी का क्षत या साथ के टेसू का है, सामान्यतः हडीले प्राणियों पर बिना हटे दबाव का क्षत है । प्रीडिस्पेजिंग कारक -जैसे दबाव, घर्षण, दरकना, मायस्चर हैं । निवारक में हैं : खतरे वाले व्यक्ति की पहचान कुछ विशेष निवारक कार्य लागू करना, जैसे - रोगी की पुनः स्थिति निर्धारण ऐसे हो कि चारपाई का सिरहाना सुरक्षित न्यूनतम ऊँचाई हो कि दरक न जायें । इसमें दबाव कम करने वाली सतह व्यवहार एवं न्युट्रिशन का आकलन एवं आवश्यकता होने पर सहायक उपलब्ध कराया जा सकता है । चिकित्सा में है - स्थानीय और दूर के इफेक्शन का इलाज, नेक्रोटिक टीशू हटाना, घाव सूखने एवं शल्यक्रिया हेतु वातावरण स्थिर रखा जाय । रीढ घात के रोगियों हेतु 24 शैया हैं, जिनमें सामान्यतया प्रेसर सोर हो जाते हैं । या पैसर सोर सहित ही अस्पताल में भरती होते हैं । हमारे रोगियों में प्रेसर सोर का होना , वह स्थान जहाँ होता है, रोकथाम की विभिन्न प्रणालियाँ, एवं उनकी चिकित्सा का अध्ययन करना है ।
i) विशेष क्लिनिकों की स्थापना :
कंजीनीटल डिफार्मिटी वाले काफी रोगी ओडिशा के विभिन्न भागों जैसे आदिवासी क्षेत्र बलांगीर, कोरापुट, कालाहांडी (के.बी.के) एवं अन्य पडोसी राज्यों जैसे प. बंगाल, बिहार, एमपी, यूपी, छत्तीसगढ आदि स्थान में आते हैं । सीटीईवी, एजीएमटी, सिंडक्टेली, जेनु बल्गम एसं जेनुवेरम आदि डिफार्मटी देश के विभिन्न क्षेत्रों से यहाँ रेफर कर दी जाती है । इसकी चिकित्सा में ब्रेसींग से शल्यक्रिया हस्क्षेप सह इलिजारोव पद्धति की जरूरत पडती है ।
अतः इन रोगियों के लिए अलग कंजेनिटल डिफार्मिटी क्लिनिक शुरू करने का प्रस्ताव है ।
ii ) जेरियाट्रिक क्लिनिक :
जीवन के स्तर में सुधार एवं मेडिकल सुविधाओं के साथ मृत्यु दर एवं मार्बिडीटी दर बहुत घट गई है । मनुष्य की जीवन अवधि काफी बढ गई है । बुढापे में मस्कुलोस्केलेटल समस्याओं जैसे ओल्टीयोआर्थराइटिस, फ्रेक्चर, पेरियंथ्राइटिस, स्पांडिलाइटिस आदि बढ गए हैं । घटी क्षमता भी है । इसके लिए मेडिकल शल्यक्रिया थेरापी, मनोचिकित्सा एवं रिक्रियशनल गतिविधि उन्हे उभय मानसिक एवं शारीरिक फिट रखने जरूरी है ।
अतः एसवी निरतार में जेरियाट्रिक क्लिनिक शुरू करने का प्रस्ताव है ।
iii) एंकल एवं फुट क्लिनिक :
रोड ट्रेफिक दुर्घटनायें बढने के साथ एवं कंजीनिटल डिफार्मिटी रोगियों में फूट एवं एंकल डिफार्मिटी अधिक होने से लोकोमोटर डिजेबिलिटी अधिक होती है । इसके लिए विशेष ध्यान देने की जरूरत पडती है । अतः मोजूदा पुनःस्थापन एवं आर्थोपेडिक विशेषज्ञों के साथ हफ्ते में दो दिन एंकल एवं फूट क्लिनिक शुरू करने का प्रस्ताव है ।
iv) आर्थराइटिस क्लिनिक :
रुमेटायड आर्थराइटिस, ओस्टियो आर्थराइटिस पेरिया, आर्थराइटिस, स्पांडिलासिस आदि बुढापे के रोग ही नहीं रहे, पर बडी संख्या में युवा भी आक्रांत हो रहे हैं । इसके लिए मेडिकल, शल्यक्रिया , थेरापी कार्यक्रम रोगी को सामान्य काम काज हेतु फिट रखने जरूरी होते हैं ।
v) अपूंटी क्लिनिक
नकली लिंब लगाने बडी संख्यक अंपूटी रोगी आते हैं । ऐसे रोगियों पर ध्यान देने विशेष एंपूटी क्लिनिक शुरू का प्रस्ताव है ।
vi) स्कालियोसिस क्लिनिक :
चिकित्सा एवं ब्रेसिंग हेतु रीढ विकृति के रोगी बडी संख्या में आते हैं । अतः विशेष स्कालियोसिस क्लिनिक शुरू कर ऐसे रोगियों पर ध्यान देने का प्रस्ताव है ।
प्रस्तावित नये पाठ्यक्रम :
i) पेडियाट्रिक आर्थोपेडिक्स :
एक वर्ष - दो सीट ऐमस/ डी एन वी आर्थो (फेलोशिप) संस्थान में काफी संख्यक शिशु मरीज सीटीईवी, कंजेनिटल सुडोआर्थराइटिस, टिबिया, कंज एबसेंस आफ लिंब्स, सीपी स्पाइनल बीफीडा, सहित आते हैं । एक सामान्य आर्थोपेडिक सर्जन ऐसे रोगियों को प्रभावी ढंग से चिकित्सा के लिए कम एक्सपोजर होता है । इस दृष्टि से विशेषज्ञों का दल प्रशिक्षित और विकसित होना चाहिए जो इन का इलाज प्रभावी ढंग से कर सके और पुनः स्थापन कर सके । अतः संस्थान में एक कोर्स शुरू करने का प्रस्ताव है जिसमें देश के विशिष्ट पेडियाट्रिक सर्जन को अतिथि संकाय के रूप में आमंत्रित किया जाये ।
ii) पुनर्स्थापन शल्यक्रिया :
एक वर्षीय फेलोशिप (दो सीट) पीएमआर, पोस्ट एमएस/ एमडी/ डीएनबी पीएमआर :
अनेक रोगी स्पायु दौर्बल्य जैसे हैसेन डिजीज. पीपीआपी. सीपी. सीपीटी. स्पाइना विफिडा, स्पाइनल कार्ड इंजरी, न्यूरालाजिकल कंडीशन एवं पेराप्लेजिक साथ में बेडशोर जिनको अधिक शल्यक्रिया हस्तक्षेप जरूरी होता है । यह बहुत चेलेंजिंग क्षेत्र है, यहाँ विशेष प्रशिक्षम जरूरी होता है । दूसरे शब्दों में ऐसे रोगियों की चिकित्सा पुनस्थापन में विशेषज्ञता बिना कठिन होती है ।
iii) पीजी डिप्लोमा इन जेरियाट्रिक रिहाबिलिटेशन :
दो वर्ष, दो सीट, एमबीबीएस के बाद यह उत्कल विश्वविालय के अंतर्गत एससीबी मेडिकल कालेज के सहयोग से होगा । जीवनावधि बढने के साथ समाज में दिन पर दिन बढ रहे हैं । उनके लिए शिशु रोगियों की तरह विशेष चिकित्सा जरूरी है । पर सभी डा. उनकी जरूरतों पर ध्यान देने में समर्थ नहीं होते । यह प्रस्ताव है एससीबी मेडिकल कालेज के साथ पाठ्यक्रम शुरू किया जाये ।
iv) पुनःस्थापन तकनीशियन/ नर्सिंग :
एक वर्ष (चार सीट) +2 एससी के बाद पुनः स्थापन विशेष क्षेत्र है जहाँ बडी संख्यक पेरामेडिकल की जरूरत इनके लिए जरूरत पडती है । ये पुनःस्थापन दल के प्रमुख अंग होते हैं । उन्हें अक्षमता की शीघ्र पहचान पेरालिटिक रोगियों को बिस्तार पर स्थिति, बेड सोर, ट्रेनिंग, सहायक एवं संयंत्रों की जानकारी एवं गृह स्थितियों की चिकित्सा की जानकारी होनी चाहिए ।